तेज़ाब
फ़ेंक कर तेज़ाब मुझ पर
सज़ा दी मुझे तूने किस गुनाह की
मैं जल रही थी , पिंघल रही थी
मेरी सीरत और सूरत दोनों बदल रही थी
तेज़ाब तो तूने एक बार फेंका था
मैं तो उस तेज़ाब में रोज़ मर रही थी
जल गए थे मेरे अपने ,
जल गए थे जो देखे थे सपने
जल गयी थी उम्मीदे मेरी
सीसी जो फेंकी थी तूने तेज़ाब से भरी
आईने ने भी पहचानने से इंकार कर दिया
इस कदर चेहरा तूने मेरा बेकार कर दिया
ज़माने की हमदर्दियों के दर्द से परेशान होकर
जब मैं बिलकुल अकेली थी
तब देखा मेरे जैसी , मेरे आस पास , इस शहर में
इस देश में , मेरी और कई सहेली थी
खूबसूरती से मानो हमारा नाता टूट गया हो
चारो तरफ तेज़ाबी बारिश हो
और हमारे हाथों से छाता छूट गया हो
तूने तो तेज़ाब फ़ेंक कर
सज़ा दी न जाने किस गुनाह की
पर छत बनकर , छाता बनकर
हमारे सपनो को किसी ने ना पनाह दी
पर कुछ नजरें ऐसी थी जिनमें भेद भाव न था
कुछ आवाजें ऐसी थी जिनमें झूठ का भाव न था
कुछ हाथों ने ऐसे थामा कि खुद को असहाय न पाया
कुछ लोग ऐसे जुडे कि खुद को अब तनहा न पाया
जिंदगी को फिर मकसद मिला है
जिंदगी चहरे से नहीं, मुझसे हैं
अब ये हौंसला है
फिर मुझे हँसने की हिम्मत मिली है
मरने को तो आजादी थी, पर अब जीने की मर्जी मिली है।