सेंसर बोर्ड या थाली का बैंगन?
चंडीगढ़: 9 सितम्बर 2015: (कथूरिया ):
फिल्म की घोषणा से ले कर उसके टाइटल रजिस्टर्ड होने, फिर शूटिंग होने और फिर अन्य कई पेचीदा किस्म की प्रक्रियायों से गुज़र कर उसके रलीज होने तक बहुत कुछ ऐसा होता है जो जग ज़ाहिर होता है। न के लिए उसके पता लगाना मुश्किल होता है और न ही फिल्म निर्माण से जुडी संस्थाओं के लिए। इस सबके साथ एक एक ऐसा वर्ग होता है जो फिल्म निर्माण को संतान की तरह देखता है। यह वर्ग होता है कलाकारों का, लेखकों का, गीतकारों का, और दर्शकों का भी। कलाकार के लिए फिल उसके कैरियर और रोज़ी रोटी से जुडी होती है। जब तक फिल्म निर्माण चलता है उसका सारा ध्यान फिल्म पर केंद्रित होता है और जब फिल्म बन जाती है तो सारा ध्यान उसकी रिलीज़ पर केंद्रित हो जाता है। जब आखिरी दम तक मिली किसी मंजूरी को दरकिनार कर अचानक ही पाबंदी की घोषणा होती है तो सबसे अधिक निराशा होती है इस कलाकार वर्ग को। उसे ऐसा लगता है जैसे किसी ने भ्रूण हत्या कर दी हो। ऐसा महसूस होता है जैसे काटने को तैयार फसल को अचानक किसी ने आग के हवाले कर दिया हो।
कुछ ऐसा ही हुआ है आगामी 11 सितंबर को रिलीज होने वाली पंजाबी फिल्म ‘मास्टर माइंड जिंदा सुक्खा’ कर मामले में। इस फिल्म पर रोक लगा दी गई है। सेंसर बोर्ड ने फिल्म को पहले मंजूरी दे दी थी लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रालय के आदेश के बाद इस पर पाबंदी लगा दी गई। मंत्रालय का कहना है कि इस फिल्म के रिलीज होने से पंजाब और आसपास के राज्यों मे हालात बिगड़ सकते हैं। फिल्म की टीम ने रोक लगने की पुष्टि की है। पाबंदी का एलान और इसकी वजह इतनी मासूमियत से बयान की जाती है जैसे बेचारे सेंसर बोर्ड को कुछ पता ही न हो कि फिल्म किस मुद्दे पर थी, उसके हक़ और विरोध में कौन कौन थे, उसका क्या क्या असर हो सकता था। बहुत देर से सेंसर बोर्ड इस तरह की हरकतें कर रहा है कि फिल में एतराज़ की बात उसे बस सरकार के कहने पर ही पता चली हो। क्या फिल्म को पारित करते वक़्त इस बोर्ड ने कुछ नहीं देखा होता?
फिल्म पर पाबंदी लगाने का कुछ संगठनों ने समर्थन किया है और कुछ ने विरोध। दल खालसा ने इस कदम की कड़ी निंदा करते हुए केंद्र सरकार को सिख विरोधी बताया है। उल्लेखनीय है कि यह फिल्म पूर्व सेना प्रमुख जनरल अरुण वैद्य के हत्यारों हरजिंदर सिंह जिंदा और सुखदेव सिंह सुक्खा के जीवन पर आधारित है। फिल्म बनाने वालों और फिल्म के समर्थकों ने इसे अपने नायकों पर बनी ऐतिहासिक फिल्म भी कहा है। अब देखना है कि फिल्म निर्माण से जुड़े कलाकारों और औनकी कला व कॅरियर के साथ खिलवाड़ कब तक जारी रहता है।
सेंसर की भेंट:
1973 में फिल्म गर्म हवा का प्रदर्शन रोक गया
1975 में आंधी का प्रदर्शन रोक गया
1977 में किस्सा कुर्सी का फिल्म पर पाबंदी सेंसर बोर्ड के कार्यालय से सारी रील उठवा कर जला दी
1971 में सिक्किम फिल्म पर पाबंदी जिसे सितम्बर 2010 में हटा दी दिया गया।
1987 में फिल्म पति परमेश्वर की रेटिंग से इंकार किया गया
1994 में फिल्म बैंडिट क्वीन पर पाबंदी
1996 में फिल्म फायर पर पाबंदी
2003 में फिल्म हवाएं पर पाबंदी जो नवंबर-१९८४ की घटनाओं से सबंधित थी।
2005 में वर्ष 2004 की फिल्म ब्लैक फ्राईडे पर पाबंदी
2005 में सिख व्विरोधी हिंसा पर पर बनी फिल्म अमु को कुछ आडियो कटस के बाद एडल्ट रेटिंग दी
2005 में ही फिल्म वाटर हिन्दू संगठनों के ऐतराज़ पर रुकी और फिर मार्च 2007 में रिलीज़ हुई।
2014 में फिल्म कौम दे हीरे पर पाबंदी लगी